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प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंश एवं उनके संस्थापक – एक ऐतिहासिक अध्ययन

प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंश एवं उनके संस्थापक – एक ऐतिहासिक अध्ययन

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 हर्यक वंश :- बिम्बिसार 

बिम्बिसार (लगभग 544–492 ईसा पूर्व) मगध के हर्यक वंश के संस्थापक और सबसे लोकप्रिय सम्राटों में से एक थे। उन्होंने मात्र पंद्रह वर्ष की अवस्था में सिंहासन संभाला और मगध का समुद्र-सेतु मार्ग जोड़ने वाले अंग  प्रदेश को अपने अधिकार में कर लिया; वहां अपने पुत्र अजातशत्रु को राज्यपाल नियुक्त किया । राजगृह (आधुनिक राजगीर) को अपनी राजधानी बनाकर उन्होंने बुद्ध और जैन धर्म दोनों को संरक्षण दिया—बुद्ध को वेलुवन उद्यान दान में दिया और उनकी पूजा आराधना की  । अपने शासनकाल में उन्होंने देश के कई पड़ोसी राज्यों (जैसे कोशल, वैशाली, पंजाब) से वैवाहिक गठबंधनों के माध्यम से राजनैतिक संबंध बनाए जिससे उनकी शक्ति और प्रशासनिक कुशलता में वृद्धि हुई  । लगभग 52 वर्षों तक शासन करने के बाद, बिम्बिसार की मृत्यु उनके ही पुत्र अजातशत्रु के हाथों कैद करके भूखा मृत्यु देने से हुई—जो अपने समय का एक दुर्भाग्यपूर्ण अंत था  । उनके दूरदर्शी प्रशासन, धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण और साम्राज्य विस्तार की नीति ने मगध को उत्तर भारत का प्रमुख साम्राज्य बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।



 शिशुनाग वंश :- शिशुनाग


शिशुनाग (करीब 413–395 ई॰पू॰) मगध साम्राज्य में हैर्यक वंश के अंतिम सम्राट नागदासक के मंत्री (अमात्य) थे। 413 ई॰पू॰ में उनके विरुद्ध जनता के विद्रोह के बाद उन्होंने सिंहासन प्राप्त किया और शिशुनाग वंश की स्थापना की । प्रारंभ में उनकी राजधानी राजगीर (गिरिव्रज) थी और बाद में उन्होंने द्वितीय राजधानी के रूप में वैशाली को विकसित किया। उनके शासनकाल में मगध ने अवन्ती (उज्जैन) को जीतकर उसे अपने अधीन कर लिया, जिससे साम्राज्य की शक्ति में भारी वृद्धि हुई  । आसपास के क्षत्रिय राज्यों जैसे कोशल, वत्स आदि पर भी उनका प्रभाव फैल गया  । उनके बाद उनके पुत्र कालाशोक (काकवर्ण) ने राजा के रूप में शासन संभाला और वैशाली में दूसरी बौद्ध संगीति का आयोजन किया तथा पाटलिपुत्र को अंतिम राजधानी बनाया  । इस वंश का पतन 345–344 ई॰पू॰ के आसपास नंद वंश की सत्ता के उदय के साथ हुआ, जब महापद्म नंद ने अंतिम राजाओं को पराजित किया  ।


नंद वंश :- महापदम् नन्द 


महापद्म नंद (लगभग 364–337 ईसा पूर्व) मगध के पहले नंद वंश के संस्थापक थे। पुराणों में उन्हें “एकरत” (एकमात्र शासक) और "सर्व-क्षत्रियांतक" (सभी क्षत्रियों का नाश करने वाला) कहा गया है, क्योंकि उन्होंने मगध से बाहर पंजाब, कालींग, अवन्ती, कोशल, कषि, पंचाल, कुरु एवं अन्य कई क्षत्रिय राज्यों को पराजित कर अपने साम्राज्य में मिला लिया । इनके शासनकाल में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) बनी और उन्होंने केंद्रीकृत प्रशासन, कर-प्रणाली, सड़कें व जलमार्ग विकसित किए, जिससे राज्य की संपत्ति और शक्ति बहुत बढ़ी  । महापद्म नंद का असली जन्मस्थान और सामाजिक पृष्ठभूमि विवादास्पद है—बड़ी संख्या में स्रोतों के अनुसार उनकी माता एक शूद्र व पत्नी एक ब्राह्मण थी या वे निचली जाति से थे—लेकिन फिर भी उन्होंने पूरे उत्तर भारत को अपने अधिकार में कर लिया और पहला सम्राट कहलाए  । 337 ईसा पूर्व उनकी मृत्यु के बाद आठ पुत्रों (या भाइयों) ने सत्ता संभाली पर नए राज्य की शक्ति कमजोर होने लगी और अंततः इसे धनानंद के समय चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा 321 ईसा पूर्व समाप्त कर दिया गया  ।



 मौर्य वंश :- चन्द्रगुप्त मौर्य 


चन्द्रगुप्त मौर्य (लगभग 325 ईसा पूर्व में जन्मे) मौर्य वंश के संस्थापक थे, जिन्होंने नन्द वंश को 322 ईसा पूर्व में पराजित करके मगध में अपनी सत्ता स्थापित की। अपने गुरु चाणक्य के मार्गदर्शन में वे छोटे-छोटे राज्यों को एकजुट करके एक विशाल साम्राज्य का निर्माण करने में सफल रहे, जो पूर्व में बंगाल और असम से लेकर, पश्चिम में अफगानिस्तान और बलूचिस्तान तक, उत्तर में कश्मीर और नेपाल और दक्षिण में दक्कन का पठार तक फैला था । उन्होंने लगभग चौबीस वर्ष तक शासन किया और अपने जीवन के अंतिम वर्षों में जैन धर्म अपनाया तथा श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में कठोर उपवास करके संसार त्याग दिया, लगभग दो सौ सत्तानवे ईसा पूर्व में उनका निधन हुआ ।


 शुंग वंश :- पुष्यमित्र शुंग 


पुष्यमित्र शुंग (लगभग 185–151 ईसा पूर्व) मौर्य साम्राज्य के अंतिम सम्राट बृहद्रथ के सेनापति थे, जिन्होंने 185 ईसा पूर्व में बृहद्रथ की हत्या कर शुंग वंश की नींव रखी।  उनकी इस क्रांतिकारी कार्रवाई को लेकर बाणभट्ट ने हर्षचरित में 'अनार्य' कहा है, जिसका अर्थ उनके कार्य की निंदा करना था, न कि उनकी जाति का निर्धारण करना। पुष्यमित्र शुंग ने 36 वर्षों तक शासन किया और मौर्य साम्राज्य के विघटन के बाद उत्तर भारत में अपनी सत्ता स्थापित की।  उनका साम्राज्य पश्चिम में जालंधर (पंजाब) तक, दक्षिण में नर्मदा नदी तक, और पूर्व में बंगाल तक फैला हुआ था।  उन्होंने विदिशा को अपनी राजधानी बनाया और मथुरा, उज्जैन, श्रावस्ती, काशी, और तक्षशिला जैसे प्रमुख नगरों को अपने अधीन किया। धार्मिक दृष्टिकोण से, पुष्यमित्र शुंग वैदिक धर्म के अनुयायी थे और बौद्ध धर्म के प्रति शत्रुता का आरोप उन पर लगाया गया है।  हालांकि, कुछ इतिहासकार मानते हैं कि यह आरोप अतिशयोक्तिपूर्ण हैं, क्योंकि शुंग काल में बौद्ध विहारों के निर्माण और संरक्षण के प्रमाण भी मिलते हैं। उनके शासनकाल में पतंजलि जैसे महान विद्वान हुए, जिन्होंने पाणिनि की अष्टाध्यायी पर आधारित महाभाष्य की रचना की।  इसके अलावा, उन्होंने अश्वमेध यज्ञों का आयोजन भी किया, जो प्राचीन भारत में राजसत्ता का प्रतीक माने जाते थे। 


 कण्व वंश :- वसुदेव

 

वासुदेव कण्व (लगभग 75–66 ई. पू.) शुंग वंश के अंतिम सम्राट देवभूति के ब्राह्मण मंत्री (अमात्य) थे।  उन्होंने देवभूति की हत्या कर शुंग साम्राज्य का अंत किया और कण्व वंश की नींव रखी।  कण्व वंश का शासनकाल लगभग 75 ई. पू. से 28 ई. पू. तक माना जाता है।  इस वंश के शासकों में वासुदेव के बाद भूमिमित्र, नारायण और सुशर्मा शामिल हैं।  कुल मिलाकर, कण्व वंश के चार शासकों ने लगभग 45 वर्षों तक शासन किया।  इन शासकों के बारे में अधिकांश जानकारी सिक्कों और पुराणों से प्राप्त होती है।  कण्व वंश का पतन आंध्र वंश के संस्थापक सिमुक द्वारा सुशर्मा की हत्या के बाद हुआ, जिससे कण्व वंश का अंत हुआ। 


 सातवाहन वंश :- सिमुक 


सिमुक, जिसे कुछ स्रोतों में सिन्धुक, शिशुक या शिप्रक भी कहा जाता है, सातवाहन वंश के संस्थापक थे।  उन्होंने लगभग 210 ई. पू. में कण्व वंश के अंतिम शासक सुशर्मा को पराजित कर मगध के सिंहासन पर अधिकार किया।  इससे सातवाहन वंश की नींव पड़ी, जो दक्षिण भारत के महत्वपूर्ण राजवंशों में से एक बना।  

राजधानी और शासनकाल

सिमुक ने प्रतिष्ठान (वर्तमान पैठण, महाराष्ट्र) को अपनी राजधानी बनाया और लगभग 23 वर्षों (लगभग 210–187 ई. पू.) तक शासन किया।  उनके शासनकाल में जैन और बौद्ध मंदिरों का निर्माण हुआ, जिससे धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक समृद्धि का संकेत मिलता है।  

उत्तराधिकार और साम्राज्य विस्तार

सिमुक की मृत्यु के बाद, उनका भाई कृष्ण (कन्ह) गद्दी पर बैठा और 18 वर्षों तक शासन किया।  कृष्ण के बाद उनका पुत्र शातकर्णि प्रथम ने शासन किया, जो सातवाहन वंश के सबसे महान शासकों में से एक माने जाते हैं।  उन्होंने साम्राज्य का विस्तार किया और अपने शासनकाल में कई महत्वपूर्ण कार्य किए।


 कुषाण वंश :- कडफिसस प्रथम 


कुजुल कडफिसेस, जिसे कडफिसेस प्रथम भी कहा जाता है, कुषाण वंश का पहला शासक था।  उसने लगभग 30 ई. से 80 ई. तक शासन किया और अपने साम्राज्य की नींव रखी। 

प्रारंभिक जीवन और सत्ता की स्थापना

कुजुल कडफिसेस ने यूची (Yuezhi) जनजाति के पांच क़बायली समूहों को एकत्रित किया और उन्हें "कुषाण" नाम से एकजुट किया।  चीनी इतिहासकार स्यू मा चियन के अनुसार, उसने काबुल और कश्मीर में अपनी सत्ता स्थापित की।  उसके प्रारंभिक सिक्कों पर यूनानी राजा हर्मियस की आकृति और उसके अपने चित्र अंकित थे, जिससे यह संकेत मिलता है कि वह पहले यूनानी राजा के अधीन था, लेकिन बाद में उसने स्वतंत्रता प्राप्त की। 

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साम्राज्य का विस्तार और प्रशासन

कुजुल कडफिसेस ने अफ़ग़ानिस्तान के काबुल, कंधार और गांधार क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की।  उसने पार्थियन (पार्थियाई) प्रदेशों पर भी अधिकार किया, जिससे उसका साम्राज्य विस्तृत हुआ।  उसके सिक्कों पर "महाराजाधिराज" और "देवपुत्र" जैसी उपाधियाँ अंकित थीं, जो उसकी शक्ति और धार्मिक सहिष्णुता को दर्शाती हैं। 

धार्मिक दृष्टिकोण और सांस्कृतिक योगदान

कुजुल कडफिसेस ने बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया और अपने सिक्कों पर "धर्मथिद" (धर्म में स्थित) शब्द अंकित करवाए।  इससे यह संकेत मिलता है कि उसने बौद्ध धर्म को अपनाया और उसका प्रचार किया।  उसके शासनकाल में भारतीय संस्कृति और कला का विकास हुआ, और उसने भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था को अपनाया। 

मृत्यु और उत्तराधिकार

कुजुल कडफिसेस ने लगभग 80 वर्ष की आयु में 64 ई. में निधन किया।  उसके बाद उसके पुत्र विम कडफिसेस ने शासन संभाला और साम्राज्य का और विस्तार किया। 


 गुप्त वंश :- श्री गुप्त 


गुप्त वंश की नींव श्रीगुप्त ने रखी थी।  उनका शासनकाल लगभग 275 से 300 ईस्वी तक माना जाता है।  हालांकि उनके बारे में उपलब्ध जानकारी सीमित है, लेकिन उनके उत्तराधिकारियों के अभिलेखों से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने गुप्त वंश की स्थापना की।  श्रीगुप्त के बाद उनके पुत्र घटोत्कच ने शासन संभाला।  गुप्त वंश के शासकों ने भारतीय इतिहास में कला, विज्ञान, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिसे "गुप्त काल" या "स्वर्ण युग" के नाम से जाना जाता है।


 हूण वंश :- तोरमाण 


तोरमाण (लगभग 500–515 ई.) हूणों का एक प्रमुख शासक था, जिसने गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तरी भारत में हूणों की सत्ता स्थापित की।  उसने मालवा, मध्य भारत, पंजाब, कश्मीर, और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त की।  उसकी राजधानी साकल (स्यालकोट) थी, और उसने स्वयं को 'महाराजाधिराज' की उपाधि दी  ।तोरमाण के शासनकाल में एरण (मध्य प्रदेश) से प्राप्त एक शिलालेख में उसके सामंत धन्यविष्णु का उल्लेख है, जो यह दर्शाता है कि उसने गुप्त साम्राज्य के अधिकारियों को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए मजबूर किया था।हूणों के इस आक्रमण ने गुप्त साम्राज्य को कमजोर किया, और उसके बाद मिहिरकुल, तोरमाण का पुत्र, ने हूण साम्राज्य का विस्तार किया। 


 पुष्यभूति वंश :- नरवर्धन 


नरवर्धन पुष्यभूति वंश के दूसरे शासक थे, जिन्होंने लगभग 500 से 525 ई. तक शासन किया।  उनका शासनकाल गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तरी भारत में सत्ता की पुनर्स्थापना का एक महत्वपूर्ण चरण था।  हालांकि उनके शासनकाल के बारे में उपलब्ध जानकारी सीमित है, लेकिन यह माना जाता है कि उन्होंने गुप्त या हूण शासकों की प्रभुता को स्वीकार किया था।  उनकी उपाधि 'महाराज' थी, जो उनके साम्राज्य की सीमाओं और शक्ति को दर्शाती है।  नरवर्धन के बाद उनके उत्तराधिकारी राज्यवर्धन, आदित्यवर्धन, प्रभाकरवर्धन, राज्यवर्धन द्वितीय और हर्षवर्धन ने शासन किया, जिनमें से हर्षवर्धन ने वर्धन वंश को अपने चरमोत्कर्ष तक पहुँचाया।


 पल्लव वंश :- सिंहवर्मन चतुर्थ 


पल्लव वंश के शासक सिंहवर्मन चतुर्थ का शासनकाल लगभग 460–480 ई. तक माना जाता है।  वह पल्लव वंश के एक महत्वपूर्ण शासक थे, जिनके बारे में उपलब्ध जानकारी सीमित है।  उनका उल्लेख कुछ अभिलेखों में मिलता है, लेकिन उनके शासनकाल के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है।


 चालुक्य वंश :- जयसिंह 


जयसिंह सिद्धराज (1094–1142 ई.) पश्चिमी चालुक्य वंश के प्रमुख शासक थे, जिन्होंने गुजरात में अपनी राजधानी आनहिलवाड़ (वर्तमान पाटन) से शासन किया।  उनके शासनकाल में चालुक्य साम्राज्य ने महत्वपूर्ण सैन्य और सांस्कृतिक उपलब्धियाँ हासिल कीं। 

जयसिंह सिद्धराज ने मालवा के परमार शासकों, सौराष्ट्र के चूड़ासामा राजा नवघण, और शाकंभरी चौहानों के शासक अरनोराज को पराजित किया।  उनकी बेटी कंचनादेवी की शादी अरनोराज से हुई, जिससे दोनों राजवंशों के बीच मैत्री संबंध स्थापित हुए।  इसके अलावा, उन्होंने रुद्रमहाल्य मंदिर का निर्माण करवाया, जो चालुक्य वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है  ।


 चालुक्य वंश :- तैलव द्वितीय 


तैलप द्वितीय, जिसे तैलव द्वितीय भी कहा जाता है, पश्चिमी चालुक्य वंश का संस्थापक था। उसने लगभग 973 ई. में राष्ट्रकूट वंश को पराजित कर इस वंश की नींव रखी। तैलप द्वितीय ने अपनी राजधानी कल्याणी में स्थापित की और दक्षिण भारत में चालुक्य सत्ता को फिर से मजबूत किया। उसकी विजयों के कारण चालुक्य वंश एक बार फिर से एक शक्तिशाली राजवंश के रूप में उभरा।


 चालुक्य वंश :- विष्णुवर्धन 


विष्णुवर्धन चालुक्य वंश की पूर्वी शाखा (वेंगी के चालुक्य) का संस्थापक था। वह चालुक्य सम्राट पुलकेशिन द्वितीय का भाई था, जिसे वेंगी क्षेत्र का शासक नियुक्त किया गया था। बाद में विष्णुवर्धन ने खुद को स्वतंत्र शासक घोषित किया और पूर्वी चालुक्य वंश की नींव रखी। यह वंश कई शताब्दियों तक आंध्र प्रदेश के क्षेत्र में शासन करता रहा।


 राष्ट्रकूट वंश :- दन्तिदूर्ग 


दन्तिदुर्ग राष्ट्रकूट वंश का संस्थापक था। उसने 8वीं शताब्दी के मध्य में चालुक्य वंश की अधीनता से स्वतंत्र होकर राष्ट्रकूट वंश की नींव रखी। दन्तिदुर्ग ने अपने शासनकाल में दक्षिण भारत में कई क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की और एक सशक्त साम्राज्य की स्थापना की। उसकी राजधानी मान्यखेट (मालखेड) थी। दन्तिदुर्ग की विजयों से राष्ट्रकूट वंश एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरा


 पाल वंश :- गोपाल
 

गोपाल पाल वंश का संस्थापक था, जिसने 8वीं शताब्दी में बंगाल क्षेत्र में इस वंश की नींव रखी। वह जनता द्वारा चुना गया पहला शासक माना जाता है, जो उस समय की राजनीतिक अस्थिरता को समाप्त करने में सफल रहा। गोपाल ने बंगाल को एकत्रित किया और एक मजबूत प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की। उसके बाद पाल वंश ने पूर्वी भारत में एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित किया, जो कई शताब्दियों तक टिका रहा।


 गुर्जर - प्रतिहार :- नागभट्ट प्रथम 


नागभट्ट प्रथम गुर्जर–प्रतिहार वंश का संस्थापक था, जिसने 8वीं शताब्दी में इस वंश की नींव रखी। उसने अरब आक्रमणकारियों को हराकर पश्चिम भारत की रक्षा की, जिससे उसकी वीरता और नेतृत्व क्षमता सिद्ध हुई। नागभट्ट प्रथम ने मालवा और राजस्थान के कुछ भागों पर अधिकार जमाया और अपने शासन की शुरुआत की। उसकी विजय ने प्रतिहार वंश को एक शक्तिशाली शक्ति बनने की दिशा में अग्रसर किया।


 सेन वंश :- सामन्त सेन 

सामन्त सेन सेन वंश का संस्थापक था, जिसने 11वीं शताब्दी में बंगाल क्षेत्र में इस वंश की नींव रखी। मूल रूप से यह वंश दक्षिण भारत के कर्नाटक क्षेत्र से संबंधित था, लेकिन सामन्त सेन ने पूर्वी भारत आकर बंगाल में अपनी स्थिति मजबूत की। उसने एक सशक्त शासन व्यवस्था स्थापित की, जिससे सेन वंश आगे चलकर बंगाल का एक प्रमुख राजवंश बन गया। सामन्त सेन के बाद उसके पुत्र हेमन्त सेन और फिर विजय सेन ने वंश को और अधिक शक्तिशाली बनाया।


 गहड़वाल वंश :- चन्द्रदेव 


चन्द्रदेव गहड़वाल वंश का संस्थापक था, जिसने 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कन्नौज (उत्तर प्रदेश) को अपनी राजधानी बनाकर इस वंश की नींव रखी। उसने महमूद गजनवी और उसके बाद के आक्रमणों के बाद कन्नौज क्षेत्र में राजनीतिक स्थिरता स्थापित की। चन्द्रदेव ने अपने शासनकाल में शांति, न्याय और प्रशासन को संगठित किया, जिससे गहड़वाल वंश उत्तर भारत का एक प्रभावशाली राजवंश बन गया। उसके बाद उसके उत्तराधिकारियों ने इस विरासत को आगे बढ़ाया।


 चौहान वंश :- वासुदेव 

वासुदेव को चौहान वंश का प्रारंभिक (प्रथम ज्ञात) शासक माना जाता है, जिसने 6वीं शताब्दी के आसपास इस वंश की नींव रखी थी। ऐसा माना जाता है कि चौहान वंश की उत्पत्ति अजमेर और सांभर क्षेत्र से हुई थी, और वासुदेव ने वहीं से शासन की शुरुआत की। हालांकि वह एक स्थानीय शासक था, लेकिन उसी के द्वारा रखी गई नींव पर आगे चलकर यह वंश बहुत शक्तिशाली बना। बाद में इसी वंश में प्रथम पृथ्वीराज चौहान जैसे महान योद्धा उत्पन्न हुए, जिन्होंने दिल्ली और अजमेर पर शासन किया।


 चन्देल वंश :- नन्नुक

 

नन्नुक चंदेल वंश का प्रथम शासक था, जिसे इस वंश का संस्थापक माना जाता है। उसने 9वीं शताब्दी के प्रारंभ में बुंदेलखंड क्षेत्र (वर्तमान मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश) में शासन की नींव रखी। नन्नुक ने छोटे-छोटे क्षेत्रों को संगठित कर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। यद्यपि उसका शासन सीमित था, परंतु उसी के द्वारा रखी गई नींव पर आगे चलकर चंदेल वंश ने खजुराहो के भव्य मंदिरों और एक शक्तिशाली साम्राज्य का निर्माण किया।


 गंग वंश :- वज्रहस्त वर्मन 

वज्रहस्त वर्मन गंग वंश के प्रमुख शासकों में से एक था, जिसने लगभग 6वीं शताब्दी में शासन किया। गंग वंश का उद्भव दक्षिण भारत (मुख्यतः कर्नाटक और ओडिशा क्षेत्र) में हुआ था। वज्रहस्त वर्मन ने अपने शासनकाल में गंग वंश की स्थिति को मजबूत किया और प्रशासनिक तथा सैन्य दृष्टि से राज्य को संगठित किया। वह धर्मपरायण शासक था और ब्राह्मणों को दान देने एवं मंदिरों के निर्माण में रुचि रखता था। वज्रहस्त वर्मन की नीतियों ने गंग वंश को एक स्थायित्व प्रदान किया, जिससे यह वंश लंबे समय तक दक्षिण भारत में प्रभावी रहा।


 उत्पल वंश :- अवन्ति वर्मन 


अवन्तिवर्मन उत्पल वंश का संस्थापक शासक था, जिसने 855 ईस्वी के आसपास कश्मीर में इस वंश की नींव रखी। उसने कार्कोट वंश के पतन के बाद शासन संभाला और कश्मीर में शांति, समृद्धि और स्थिरता स्थापित की। अवन्तिवर्मन एक योग्य प्रशासक और धर्मपरायण शासक था। उसके काल में कला, साहित्य और सिंचाई व्यवस्था का काफी विकास हुआ। प्रसिद्ध अभियंता सूर्य ने उसके शासनकाल में कई नहरों और बांधों का निर्माण कराया। अवन्तिपुर शहर की स्थापना भी उसी ने की, जो आज भी एक ऐतिहासिक स्थल के रूप में प्रसिद्ध है।


 परमार वंश :- उपेन्द्रराज 

उपेन्द्रराज परमार वंश के प्रारंभिक शासक माने जाते हैं, जिन्होंने लगभग 9वीं शताब्दी में मालवा क्षेत्र में इस राजवंश की नींव रखी। उन्होंने परमार वंश की सत्ता स्थापित कर मध्य भारत में राजनीतिक स्थिति को मजबूत किया। उपेन्द्रराज के बाद परमार वंश ने कई शक्तिशाली शासकों को जन्म दिया, जिनमें राजा भोज सबसे प्रसिद्ध हैं। उपेन्द्रराज के शासनकाल को इस वंश की शुरुआत और मजबूती का काल माना जाता है।


 सोलंकी वंश :- मूलराज प्रथम 

मूलराज प्रथम सोलंकी वंश (जिसे चालुक्य वंश भी कहा जाता है) का संस्थापक शासक था, जिसने लगभग 942 ईस्वी में गुजरात में इस वंश की नींव रखी। उसने प्रतिहारों से स्वतंत्रता प्राप्त कर अन्हिलवाड़ (वर्तमान पाटण) को अपनी राजधानी बनाया। मूलराज प्रथम ने राज्य की सीमाओं की रक्षा करते हुए शासन को संगठित किया और अपने वंश के लिए एक मजबूत आधार तैयार किया। उसके द्वारा स्थापित सोलंकी वंश आगे चलकर गुजरात में राजा भीमदेव और सिद्धराज जयसिंह जैसे शक्तिशाली शासकों के नेतृत्व में समृद्ध हुआ।


 कलचुरी वंश :- कोकल्ल 

कोकल्ल कलचुरी वंश का एक प्रसिद्ध और शक्तिशाली शासक था, जिसने लगभग 9वीं शताब्दी में शासन किया। वह त्रिपुरी (वर्तमान मध्य प्रदेश) के कलचुरी वंश से संबंधित था। कोकल्ल ने अपने शासनकाल में राज्य का विस्तार किया और आसपास के कई क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की। वह न केवल एक पराक्रमी योद्धा था, बल्कि एक कुशल शासक भी था जिसने प्रशासन और संस्कृति को भी बढ़ावा दिया। कोकल्ल के शासन ने कलचुरी वंश को मध्य भारत की एक प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित किया।


 चोल वंश :- विजयालय 

विजयालय चोल वंश का संस्थापक शासक था, जिसने 9वीं शताब्दी के मध्य में तंजावुर को जीतकर चोल वंश की पुनः स्थापना की। इससे पहले चोल वंश कमजोर हो चुका था, लेकिन विजयालय ने पल्लवों और पांड्यों की कमजोरियों का लाभ उठाकर दक्षिण भारत में चोल शक्ति को फिर से खड़ा किया। उसने तंजावुर को अपनी राजधानी बनाया और वहीं से शासन की शुरुआत की। विजयालय की विजय से चोल वंश का पुनरुत्थान हुआ, जो आगे चलकर राजराज प्रथम और राजेन्द्र प्रथम जैसे महान शासकों के काल में अपने चरम पर पहुँचा।


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